संकल्प, साधना, सेवा और समर्पण का प्रतीक है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ

देश में संगठन और आंदोलन आते-जाते रहे हैं। कुछ समय के साथ क्षीण हुए तो कुछ परिस्थितियों की आँधियों में बह गए
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2025-10-01 20:31:42

देश में संगठन और आंदोलन आते-जाते रहे हैं। कुछ समय के साथ क्षीण हुए तो कुछ परिस्थितियों की आँधियों में बह गए और कुछ अपने मूल ध्येय को भूलकर अस्तित्वहीन हो गए। परंतु विश्व के संगठनात्मक इतिहास में शायद ही ऐसा कोई उदाहरण मिलता हो,जिसने न केवल सौ वर्षों की यात्रा की हो, बल्कि अनेक बार प्रतिबंधों, आलोचनाओं और वैचारिक हमलों के बावजूद अपने मूल ध्येय पर अडिग रहते हुए निरंतर विकास किया हो। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसी अनूठे उदाहरण के रूप में आज शताब्दी वर्ष मना रहा है। संघ के साथ हमेशा अदृश्य चुनौतियां भी रही है। तीन बार प्रतिबंध भी लगाया गया। किंतु, इतिहास साक्षी है कि प्रत्येक अवरोध के बाद संघ पहले से अधिक समर्थ व ऊर्जावान होकर उभरा। यह उसकी संगठनात्मक दृढ़ता और वैचारिक स्पष्टता का प्रमाण है। संघ-यात्रा केवल इस संगठन की ही नहीं, बल्कि भारत की आत्मा, हिन्दुत्व और सनातन संस्कृति की स्वाभाविक सहयात्रा भी है। अपनी ध्येय यात्रा में संघ ने सदा ही संवाद और समरसता का मार्ग अपनाया। समरस भावना और आचरण से विरोधी धारणाओं को भी समय के साथ समाप्त किया। आज देशव्यापी शाखाओं में सामाजिक समरसता का प्रत्यक्ष अनुभव किया जाता है। संघ ने सदैव इस बात पर बल दिया कि राष्ट्रीय एकता केवल नारों से नहीं, बल्कि जीवन के आचरण और परस्पर व्यवहार से स्थापित होती है। इस दृष्टि से संघ का कार्य सनातन संस्कृति की गहरी परंपराओं से जुड़ा हुआ है। वह विभेद मिटाकर सभी को एक सूत्र में बाँधने की दिशा में प्रयत्नशील रहा है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भारत के कोने-कोने में लाखों स्वयं सेवक संघ के माध्यम से समाज सेवा और राष्ट्र निर्माण में जुटे हैं। राष्ट्रीय एकता और जनमत निर्माण में संघ का कार्य अनुकरणीय है। यह केवल शाखा या संगठनात्मक गतिविधियों तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे भारत को एक सूत्र में बाँधने का ध्येय रखता है। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन इसका प्रमुख उदाहरण है। दशकों तक बहसें और संघर्ष चलते रहे, पर संघ ने धैर्यपूर्वक देश का जनमत तैयार किया। अंततः अयोध्या में श्रीराम मंदिर का निर्माण केवल धार्मिक उपलब्धि नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चेतना, आत्मगौरव, स्वत्व और जनभावना की विजय बना। यही संघ की विशेषता है कि वह सामाजिक व वैचारिक स्तर पर स्थायी और गहरा असर डालने वाले मुद्दों पर धैर्यपूर्वक आगे बढ़ता है। वास्तव में इसकी कार्यपद्धति अद्वितीय है। स्थापना काल से ही संघ ने सदैव यह स्पष्ट किया कि राष्ट्र निर्माण का वास्तविक मार्ग व्यक्ति निर्माण से होकर ही जाता है। यही कारण है कि संघ से निकले स्वयंसेवक राजनीति, शिक्षा, साहित्य, विज्ञान, समाजसेवा और उद्योग हर क्षेत्र में अपनी छाप छोड़ रहे हैं। यद्यपि संघ प्रत्यक्ष राजनीति से दूर रहता है, परंतु संघ की प्रेरणा से राजनीति में भी एक नई संस्कृति का प्रवाह हुआ। दीनदयाल उपाध्याय से लेकर नरेंद्र मोदी तक, ऐसे अनेक नेता सामने आए जिन्होंने राजनीति को केवल सत्ता प्राप्ति का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्रसेवा का मार्ग माना। आज जब राजनीति में स्वार्थ और अवसरवाद के आरोप आम हो चुके हैं, तब संघ की यह बड़ी देन है कि राजनीति में सुचिता, समर्पण और राष्ट्र सर्वोपरि की धारा निरंतर बह रही है। आज भी संघ ही वह संगठन है जिसका कार्यकर्ता किसी सत्ता की आकांक्षा से प्रेरित नहीं होता, बल्कि वह अपने जीवन को समाज और राष्ट्र के लिए खपा देने की प्रेरणा पाता है। संघ से निकले असंख्य आत्मविश्वासी, अनुशासित और राष्ट्रनिष्ठ स्वयंसेवक समाज के विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान कर रहे हैं। वस्तुतः संघ ने अपने सौ वर्षों में समाज को संगठित करने की साधना की है। संघ का आशय केवल किसी संस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि वह संगठन शक्ति का जीवंत प्रतीक है। अकेला व्यक्ति चाहे कितना ही सक्षम क्यों न हो, जब समाज संगठित होता है, तब असंभव भी संभव हो जाता है। संघ कार्य का संदेश है कि संगठित शक्ति ही वास्तविक वैभव दिखाती है और वही राष्ट्र को सही दिशा देती है। संघ की एक और विशेषता है, नवाचार और युगानुकूलता को आत्मसात करना। इसकी शताब्दी यात्रा केवल परंपराओं के पुनरावर्तन तक सीमित नहीं रही है। हर युग में संघ ने युगानुकूल परिवर्तन को अंगीकार किया है। स्थापना काल से लेकर वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी के नेतृत्व तक संगठन ने अनेक नवाचार और आवश्यक बदलाव किए हैं। श्रद्धेय भागवत जी ने बौद्धिक जगत को नई दृष्टि दी, सामाजिक समरसता को केंद्र में रखा और यहाँ तक कि विश्व की धारणा बदलने का प्रयास भी किया। उनके नेतृत्व में संघ ने यह स्पष्ट किया कि हिन्दुत्व कोई संकीर्ण विचार नहीं, बल्कि समग्र मानवता को जोड़ने वाला दृष्टिकोण है और सह-अस्तित्व इसकी नींव है। आधुनिक आवश्यकताओं के अनुरूप संघ के कार्यक्रमों का पुनर्संयोजन हर स्तर पर उसकी युगानुकूलता दिखाई देती है। संघ का आचरण यह बताता है कि उसकी मूल शक्ति समय के साथ कदम मिलाकर चलने और अनुकूलन की क्षमता में है। यह बड़ा कारण है कि हर कालखंड में युवा वर्ग के बीच संघ का आकर्षण लगातार बढ़ता गया है। वास्तव में मेरे लिए यह सब केवल सैद्धांतिक बातें नहीं हैं, बल्कि प्रत्यक्ष जीवन का अनुभव हैं। लगभग चालीस वर्ष पूर्व मैंने स्वयं इस आकर्षण को अपने भीतर पाया और संघ से जुड़ा। मैं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़ा, तो मैं ऐसे क्षेत्र से आता था जहाँ संकीर्णता और जड़ता गहरी थी। यदि युवा काल में संघ से जुड़ाव न हुआ होता, तो संभव है कि मेरी जीवन-दिशा भटक जाती। परंतु संघ के संस्कारों ने मुझे सार्थक जीवन दिया। राष्ट्र सर्वोपरि के विचार ने मुझे देशसेवा की ओर उन्मुख किया और यह सिखाया कि जीवन का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत सफलता नहीं, बल्कि राष्ट्र और समाज के लिए जीना है। यही जुड़ाव मेरे विचार, आचरण और दृष्टिकोण को बदलने वाला सिद्ध हुआ। जीवन के लगभग तीस वर्ष एबीवीपी में कार्य करते हुए संघ की साधना का प्रत्यक्ष साक्षी बनने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। हिन्दुत्व संघ का महा संकल्प है। उसका लक्ष्य है ऐसा समाज खड़ा करना, जो राष्ट्र को सर्वोपरि माने। यह अवधारणा एकात्मता पर केंद्रित है। संघ की यही साधना रही है। यद्यपि संघ ने कभी स्वयं को प्रचार के केंद्र में नहीं रखा। स्वयं सेवकों से भी उसकी यही अपेक्षा रही है कि पुरुषार्थ करो, परंतु श्रेय की चिंता मत करो। इस मंत्र से उसकी जड़ें समाज में विश्वास और विश्वसनीयता के साथ गहरी और सुदृढ़ होती गई। अविरल यात्रा में संघ कभी हिन्दुत्व, भारत और स्वत्व से विमुख नहीं हुआ। चाहे कितनी भी उपेक्षाएं हुई हों, चुनौतियाँ आई हों, संघ इन्हीं तत्वों पर खड़ा रहा। हिन्दुत्व यहाँ संकीर्णता का प्रतीक नहीं, बल्कि वह समग्र मानवता को एक सूत्र में जोड़ने वाली दृष्टि है। यही संस्कृति भारत को सहस्राब्दियों तक जीवित रखती आई है और संघ उसी परंपरा का संवाहक बनकर हिमालय की तरह अडिग खड़ा है। सौ वर्ष का पड़ाव केवल इतिहास की कोई तारीख नहीं, बल्कि उस संकल्प, साधना, सेवा और समर्पण का प्रतीक है, जिसने करोड़ों स्वयं सेवकों को राष्ट्र सेवा के मार्ग पर अग्रसर किया। संघ ने हम भारतवासियों को यह जीवन-दृष्टि दी है कि अपने लिए नहीं, राष्ट्र के लिए जीना है। यही उसका शताब्दी-संदेश है। संघ केवल एक संगठन नहीं, यह भारत की आत्मा का स्पंदन है। आगामी समय में पंच परिवर्तन स्वबोध, पर्यावरण, सामाजिक समरसता, नागरिक शिष्टाचार और कुटुम्ब प्रबोधन-के आधार पर भारत को सिरमौर बनाने का संकल्प लिया गया है। सतत चलते हुए संघ सनातन संस्कृति, हिन्दुत्व, भारत और स्वत्व का अमर प्रवाह है, जो आने वाली पीढ़ियों को भी राष्ट्रभक्ति की धड़कन देता रहेगा।

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