2025-07-28 20:10:47
जब भी देश में कोई चुनाव आता है, एक ट्रेंड मानो स्थायी हो चुका है – चुनाव आयोग पर अविश्वास जताना और आधारहीन आरोप लगाना। यह ‘राजनीतिक फैशन’ बन चुका है, खासकर विपक्षी दलों के लिए जो हर चुनाव से पहले चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करते हैं, मगर आज तक कोई ठोस प्रमाण पेश नहीं कर सके हैं। ठीक यही परिदृश्य एक बार फिर बिहार में दोहराया जा रहा है। जैसे ही राज्य में मतदाता सूची पुनरीक्षण की नियमित प्रक्रिया शुरू हुई, विपक्ष ने वही पुराना राग अलापना शुरू कर दिया — मानो हार का बहाना पहले से तैयार किया जा रहा हो। इस पूरे विवाद में सच्चाई क्या है? क्या वाकई मतदाता सूची में किसी प्रकार की हेराफेरी हो रही है? या फिर यह विपक्षी दलों की उस हार की आशंका है, जिसे वे आने वाले चुनावों में भांप चुके हैं और अब इसके लिए पहले से ही बहाने गढ़ने की कोशिश में हैं? इन सवालों का विश्लेषण करना लोकतांत्रिक चेतना के लिए आवश्यक है। प्रक्रिया क्या है और इसका उद्देश्य है? भारत निर्वाचन आयोग ने 1 जुलाई 2025 को एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर स्पष्ट किया कि बिहार में जो पुनरीक्षण कार्य चल रहा है, वह उसकी वार्षिक मतदाता सूची पुनरीक्षण प्रक्रिया का हिस्सा है। यह हर वर्ष पूरे देश में 1 अक्टूबर की संदर्भ तिथि के आधार पर किया जाता है, ताकि 18 वर्ष या उससे ज्यादा उम्र के नए नागरिकों को मतदाता सूची में जोड़ा जा सके और मृत, स्थानांतरित या अयोग्य मतदाताओं को हटाया जा सके। इस प्रक्रिया के तहत घर-घर जाकर बूथ स्तर के अधिकारी (BLO) मतदाताओं से नाम, आयु, पता और पहचान पत्र से संबंधित जानकारी लेते हैं। फार्म 6, 7 और 8 के माध्यम से नये नाम जोड़ने, पुराने नाम हटाने अथवा किसी भी प्रकार की सुधार करने की व्यवस्था होती है। इस पूरी प्रक्रिया में जाति या धर्म से संबंधित कोई भी जानकारी नहीं ली जाती, जैसा कि कुछ विपक्षी दलों द्वारा आरोप लगाया जा रहा है। भारत निर्वाचन आयोग ने अपनी प्रेस विज्ञप्तियों और अधिकारियों के माध्यम से स्पष्ट किया है कि इस कार्य का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ मतदाता सूची को सटीक और अद्यतन बनाना है, ताकि भविष्य के चुनाव निष्पक्ष और भरोसेमंद तरीके से कराए जा सकें। विपक्ष के आरोप आधारहीन, पूर्वनियोजित? कांग्रेस नेता राहुल गांधी और राजद नेता तेजस्वी यादव ने हाल के बयानों में आरोप लगाया कि बिहार में चुनाव आयोग ‘जनगणना की आड़ में जातीय और धार्मिक आंकड़े इकट्ठा कर रहा है’। उनका यह भी दावा है कि इस डेटा का इस्तेमाल राजनीतिक लाभ के लिए किया जाएगा। परंतु ये आरोप तथ्यहीन प्रतीत होते हैं। जब पिछले वर्ष 2023 में बिहार सरकार ने खुद राज्य में जातीय गणना करवाई थी, तब राजद और कांग्रेस ने उस पहल का समर्थन किया था और उस समय इस प्रक्रिया को ‘समाजिक न्याय का कदम’ कहा गया था। अब जब चुनाव आयोग एक वैधानिक, नियमित और तकनीकी प्रक्रिया चला रहा है, तो वही दल इसे ‘षड्यंत्र’ बता रहे हैं। यह विरोधाभास साफ संकेत देता है कि कहीं न कहीं यह बयानबाज़ी राजनीतिक लाभ-हानि की गणना से प्रेरित है, न कि किसी लोकतांत्रिक या संवैधानिक चिंता से। क्या युवा मतदाताओं का डर सता रहा विपक्ष को? बिहार की राजनीति में लंबे समय से जाति समीकरणों और पारंपरिक वोट बैंक की भूमिका हावी रही है। बीते कुछ वर्षों में युवा और पहली बार मतदान करने वाले मतदाताओं के तौर पर एक नई वर्गीय पहचान ने उभरना शुरू किया है। ये मतदाता विकास, रोज़गार, शिक्षा और सुशासन जैसे मुद्दों को महत्व देते हैं और जाति-धर्म आधारित राजनीति से ऊब चुके हैं। 2024 के लोकसभा चुनावों में इसका असर स्पष्ट रूप से देखा गया। बिहार में भाजपा और उसकी सहयोगी जदयू को भारी जनादेश मिला, जबकि विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लॉक बिखराव और भ्रम के दौर से गुजरता रहा। आंकड़े बताते हैं कि बिहार में हर साल औसतन 15 से 20 लाख नए मतदाता वोटर लिस्ट में जुड़ते हैं। 2023 के पुनरीक्षण में करीब 11 लाख नए नाम जोड़े गए और 9 लाख नाम हटाए गए, जो राष्ट्रीय औसत के अनुरूप है। 2025 के आगामी विधानसभा चुनावों से पहले, इस वर्ष के पुनरीक्षण में इन नए युवा मतदाताओं की भागीदारी निर्णायक साबित हो सकती है। यह वर्ग किसी पार्टी का पारंपरिक वोट बैंक नहीं है और मुद्दों पर आधारित मतदान करता है। यह स्थिति उन दलों के लिए असहज है जो अब भी जातीय ध्रुवीकरण के बलबूते राजनीति करना चाहते हैं। चुनाव आयोग की साख और संविधान की मर्यादा भारत निर्वाचन आयोग की स्थापना संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत की गई थी, जिसका उद्देश्य स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना है। यह संस्था दशकों से अपनी निष्पक्षता और पारदर्शिता के लिए जानी जाती रही है। जब-जब लोकतंत्र पर संकट आया, चुनाव आयोग ने अपनी भूमिका दृढ़ता से निभाई है। यदि अब कोई राजनीतिक दल उस संस्था की निष्पक्षता पर प्रश्न उठाता है, तो यह केवल चुनाव आयोग पर ही नहीं, बल्कि पूरे संवैधानिक ढांचे पर सवाल उठाने जैसा है। लोकतंत्र का मतलब केवल अधिकारों की मांग नहीं, बल्कि संस्थाओं पर भरोसा और नागरिक जिम्मेदारी का निर्वहन भी है। चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया है कि पुनरीक्षण प्रक्रिया में कोई नई तकनीक, सर्वे या गोपनीय जानकारी नहीं मांगी जा रही है। BLO वही जानकारी मांग रहे हैं जो हर बार मांगी जाती है — जैसे नाम, उम्र, पता और पहचान पत्र की जानकारी। जाति या धर्म की जानकारी लेना न केवल अनधिकृत है, बल्कि चुनाव आयोग की निर्देशिका के खिलाफ भी है। राजनीतिक शिगूफ़ा और पूर्व-निर्मित हार का बहाना? राजनीतिक विश्लेषकों का एक वर्ग मानता है कि विपक्ष द्वारा इस समय जो आक्रोश प्रदर्शित किया जा रहा है, वह दरअसल एक रणनीतिक बचाव है। 2025 के विधानसभा चुनावों में हार की आशंका से ग्रसित विपक्ष पहले से ही एक ‘narrative’ तैयार कर रहा है — जिससे अगर परिणाम अनुकूल न आएं, तो चुनाव आयोग या केंद्र सरकार को दोषी ठहराया जा सके। यह बात सही है कि कोई भी स्वस्थ लोकतंत्र आलोचना और प्रतिप्रश्नों से डरता नहीं है लेकिन आलोचना तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर होनी चाहिए। यदि विपक्ष के पास कोई ठोस प्रमाण होते कि मतदाता सूची में धर्म या जाति के आधार पर डेटा इकट्ठा किया जा रहा है तो उन्हें इसका सबूत देना चाहिए, न कि केवल प्रेस बयानों और ट्विटर पोस्टों से काम चलाना चाहिए। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) की अनुमति दे दी है। जनता की भूमिका और लोकतंत्र की रक्षा इस पूरे प्रकरण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है जनता की, खासकर युवाओं की। यदि आप 18 वर्ष के हो चुके हैं और अब तक मतदाता सूची में नाम दर्ज नहीं हुआ है, तो यह सही समय है अपने मतदाता अधिकार का उपयोग करने का। भारत निर्वाचन आयोग ने डिजिटल पोर्टल, मोबाइल ऐप ‘Voter Helpline’ और BLO की मदद से यह प्रक्रिया आसान बना दी है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि मतदाता सूची में अद्यतन प्रक्रिया केवल किसी सरकार के लिए नहीं, बल्कि लोकतंत्र की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए होती है। यह वह प्रक्रिया है जिसके आधार पर प्रत्येक नागरिक को निर्णय लेने का अधिकार प्राप्त होता है। इस पर अविश्वास जताना लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों को कमजोर करने जैसा है। विपक्ष की भूमिका भी लोकतंत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन जब वह संस्थाओं की साख पर बिना प्रमाण हमला करने लगे तो यह भूमिका स्वाभाविक आलोचक की नहीं, बल्कि विध्वंसक की हो जाती है। विश्वास, भागीदारी और विवेक की मांग कुल मिलाकर बिहार में चल रही मतदाता सूची पुनरीक्षण प्रक्रिया को लेकर उठाए गए विपक्षी सवाल केवल एक भ्रम फैलाने की कोशिश प्रतीत होते हैं। भारत निर्वाचन आयोग की पारदर्शिता, प्रक्रिया की नियमितता और कानूनी संरचना को देखते हुए यह कहना गलत नहीं होगा कि यह पूरा विवाद विपक्ष की असुरक्षा और आगामी चुनावों में हार के भय से उपजा हुआ है। भारत एक जीवंत लोकतंत्र है। यहां सवाल पूछे जा सकते हैं, संस्थाओं पर नजर रखी जा सकती है, लेकिन वह नजर जिम्मेदारी और तथ्यों के आधार पर होनी चाहिए। चुनाव आयोग कोई अजनबी संस्था नहीं है। यह लोकतंत्र की रीढ़ है, जिसे कमजोर करना या उस पर बेवजह अविश्वास जताना देश के भविष्य को अंधकार की ओर धकेल सकता है। समय की मांग है कि नागरिक, खासकर युवा वर्ग, ऐसे भ्रम से दूर रहें और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में सक्रिय भागीदारी करें। बिहार हो या भारत का कोई और राज्य अगर लोकतंत्र को मजबूत करना है तो अविश्वास नहीं, विश्वास, बहिष्कार नहीं, भागीदारी और अफवाह नहीं, विवेक की आवश्यकता है।