2025-04-11 23:31:11
जब इंसान जन्म लेता है, न उसका धर्म होता है, न जात। धीरे-धीरे उसे समाज सिखाता है कि वह हिन्दू है या मुस्लिम। लेकिन जो बात समाज अक्सर भूल जाता है, वह यह है कि सबसे पहले हम इंसान हैं –और इंसानियत ही वो पुल है, जो हर मज़हब को जोड़ता है। हिन्दू और मुस्लिम – दो नाम, दो पहचान, लेकिन दिल से देखें तो एक ही साया हैं। एक मंदिर की घंटी है तो दूसरी मस्जिद की अज़ान, दोनों की आवाज़ें उसी खुदा की ओर जाती हैं, जिसे सबने अपने-अपने नाम दिए हैं। इतिहास गवाह है कि जब-जब किसी गाँव में आग लगी है, हिन्दू ने मुसलमान की दुकान बचाई है और मुसलमान ने हिन्दू के घर की दीवार संभाली है। मुसीबतें मज़हब नहीं पूछतीं, और मदद करने वाले हाथ भी धर्म नहीं देखते। राम और रहीम के मानने वालों ने एक साथ आज़ादी की लड़ाई लड़ी, एक साथ मिट्टी के लिए जान दी। गांधी और खान अब्दुल गफ्फार खान ने मिलकर नफरत के खिलाफ आवाज़ उठाई। यह कोई नई बात नहीं, बस हमें याद दिलाने की ज़रूरत है। आज भी अगर मोहल्ले में कोई बीमार होता है, तो पड़ोसी चाहे किसी भी धर्म का हो, सबसे पहले दवा लेकर आता है। त्योहारों पर एक-दूसरे के घर जाकर मिठाई खाना और ईद-दिवाली मिलकर मनाना हमारी पहचान है – यही हमारी असली संस्कृति है। नफ़रत फैलाने वाले चंद लोग हो सकते हैं, लेकिन इस देश की मिट्टी में मोहब्बत की जड़ें बहुत गहरी हैं। अगर हम एक-दूसरे को गले लगाएं, तो कोई दीवार नहीं टिक सकती। धर्म हमें अलग नहीं करता, वह तो बस रास्ता है, मंज़िल तो एक ही है – इंसानियत। चलो फिर से याद करें कि हम साथ बेहतर हैं। मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना – ये लाइन सिर्फ किताबों में नहीं, हमारे दिलों में भी होनी चाहिए। यह लेख प्रेम, सौहार्द और भाईचारे को समर्पित है।