2024-01-04 15:19:08
आज मैं एक ऐसी पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत करने जा रहा हूँ जिसके लेखक से मुझे स्वयं दोहा लेखन की प्रेरणा मिली और समय-समय पर मार्गदर्शन भी प्राप्त हुआ है। यह क्षण मेरे लिए अधिक गौरव का विषय है चूँकि अपने गुरू द्वारा लिखित कृति की समीक्षा लिखने का अवसर मिला है। वैसे तो गुरू की पुस्तक की समीक्षा लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। परन्तु फिर भी समीक्षा लेखन एक साहित्यिक धर्म है, जिसका मैं निष्पक्ष निर्वहन कर रहा हूँ। चल मनवा उस पार एक ऐसी (दोहा-संग्रह) कृति है जिसकी भूमिका स्वयं आदरणीय दादा मक्खन मुरादाबादी और आदरणीय कृष्ण कुमार नाज जैसे दिग्गज साहित्यकारों ने लिखी है इसलिए समीक्षा करने को कुछ शेष रह नही जाता। फिर भी इस कृति को पढ़कर मैंने जो अनुभूत किया वह आपके साथ साझा कर रहा हूँ।
प्रथम दृष्टया मेरी पत्नी श्रीमती निधि यादव जो कि स्वतंत्र और निष्पक्ष आलोचक है वह मेरी रचनाओं की प्रथम श्रोता और आलोचक हैं उन्हें चयनित रचनाएँ ही पसंद आती है जब इस कृति के कुछ दोहे मैंने उन्हें सुनाए तो उन्होंने प्रत्येक दोहे की बहुत प्रसंशा की इसी से मैंने अनुमान कर लिया कि जब ऐसे तिक्त आलोचक की दृष्टि में लेखनी खरी है तो निःसन्देह एक अनुपम कृति हिंदी साहित्य को प्राप्त हुई है।
लेखक के माता-पिता को समर्पित चल मनवा उस पार कृति का प्रत्येक दोहा विचारों के सिंधु में गोता लगाकर खोजे गये माणिक्य मोतियों की तरह चुना गया है। पुस्तक के प्रारंभिक मंगलाचरण से लेकर अंतिम दोहे तक प्रत्येक दोहा नए विचार, रचनात्मकता और जिज्ञासा के माध्यम से पाठक को बांधे रखता है। इस कृति में लोक संस्कृति की झलक, कृष्ण का प्रेम, मधुशाला की मस्तियाँ, होली के फाग, बारहमासा के माध्यम से समस्त ऋतुओं की महक, पवित्र सम्बन्धों की सूक्ष्मता का आनंद, वासना मुक्त प्रेम, भारतीय संस्कृति के दर्शन, आंचलिक शब्दावली, सामाजिक लोकाचार, त्योहारों का आनंद, दाम्पत्य की तीखी नोक-झोंक, शानदार आलंबन और शांत मन को छेड़ते उद्दीपन सीधे पाठक से संवाद करते दिखाई पड़ते हैं।
जिससे प्रत्येक पाठक बिम्ब एवं प्रतीकों का साधारणीकरण करते हुए स्वयं को कृति से जोड़ता है और इस प्रकार कृति में खो जाता है जैसे विचारों के क्षीर सागर में खो गया हो।किनारा ढूंढने का प्रयास करता दिखाई देता है पर निकलना नही चाहता।
विचारों का इतना शानदार मानवीकरण इस कृति में दिखाई देता है वह कहीं अन्यत्र नहीं दिखाई देता यहां एक दोहा उल्लेखनीय है-
जली दुपहरी जेठ से, भाभी हारी जंग।
सावन देवर लाड़ का, बूँद-बूँद में भंग।।
लेखक व्यंग विधा में सिद्धहस्त है उन्होंने समाज की राजनीति, चाटुकारिता, रूढ़िवादिता और आडंबरों पर तीखा प्रहार किया है। इसकी झलक भी इस कृति में दिखाई पड़ती है लेखक वर्तमान समाज मे व्याप्त फर्जी सम्बन्धों को तरेरते हुए लिखता है-
जीजा कोई भी नहीं, जीजी कई हज़ार।
हवामहल में चल रहा, सालों का व्यापार।।
× × × × × × × × × × × ×
बगुले जैसी सोच में, कोयल के व्यवहार।
मन पर डाका डालते, चापलूस मक्कार।।
इस पुस्तक में लेखक की साफगोई और विचारों में स्पष्टता की झलक ने मुझे बहुत प्रभावित किया है जैसे-
कृष्णम् सच्ची बात कर, आँख, आँख में डाल।
सच है तू, सच का नहीं, होता बाँका बाल।।
× × × × × × × × × × × ×
सम्मानित कोई करे, या कर दे अपमान।
नेक कर्म या धर्म का, घटता है कब मान।।
इस कृति का प्रत्येक दोहा इतना सारगर्भित और व्यापक अर्थ लिए हुए है कि मैं उन्हें पढ़कर इतना अभिभूत हुआ हूँ कि समीक्षा करते समय उद्धरण के रूप में किस दोहे को प्रस्तुत करूँ यह भी सुनिश्चित नही कर पा रहा हूँ।
एक बार पुनः चल मनवा उस पार कृति के लेखक त्यागी अशोक कृष्णम जी को बधाईयाँ... हम ईश्वर लेखक के स्वस्थ और दीर्घ जीवन की कामना करते हैं। साथ ही आशा करते हैं कि भविष्य में ऐसी ही शानदार कृतियां लिखकर हिंदी साहित्य को समृद्ध और पाठक जगत को अनुगृहीत करते रहें।
कृष्णम जी के दोहरे, व्यापक सागर नीर।
जिनकी थाह न पाइयाँ, नाविक ढूंढें तीर।।
कृति का नाम : चल मनवा उस पर (दोहा-संग्रह)
रचनाकार : त्यागी अशोक कृष्णम
समीक्षक : दुष्यंत बाबा मानसरोवर, मुरादाबाद।
मुद्रक : एस.पी. कौशिक इंटरप्राइजेज़, दिल्ली-93
संस्करण : प्रथम, 2023
मूल्य : 200/-
प्रकाशक : गुंजन प्रकाशन सी-130, हिमगिरि कालोनी, काँठ रोड, मुरादाबाद-24400